(डाउनलोड) एनसीईआरटी हिंदी ( कक्षा 6-12) के संशोधित पाठ्यक्रम
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(डाउनलोड) एनसीईआरटी हिंदी ( कक्षा 6 - 12) के संशोधित पाठ्यक्रम
1. भाषा, भाषा-शिक्षण और बहुभाषिता
1.0 परिचय
यह पाठ्यक्रम भाषा पढ़ाने वेफ लिए एक विस्तृत रूपरेखा वेफ रूप में बनाया गया है। हमें आशा है कि इस रूपरेखा को विभिन्न राज्य, शिले और वुफछ सीमा तक प्रखंड भी अपने स्थानीय संदर्भों और अपने क्षेत्रा वेफ बच्चों की विभिन्न क्षमताओं वेफ अनुसार अपनाएँगे।
सभी मनुष्य विभिन्न उद्देश्यों वेफ लिए भाषा का इस्तेमाल करते हैं। यहाँ तक कि विविध प्रकार की अक्षमता वाले बच्चे, जैसे- दृष्टिबाधित या श्रवणबाधित बच्चे भी संप्रेषण की जटिल और समृ(द्ध व्यवस्था का प्रयोग करते हैं, जिस प्रकार कोई भी सामान्य बच्चा करता है। इसलिए इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है कि अधिकांश व्यक्ति यह सोचते हैं कि वे भाषा वेफ बारे में बहुत वुफछ जानते हैं। निःसंदेह यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है। भाषा वेफवल संप्रेषण का साधन ही नहीं है, बल्कि यह एक माध्यम भी है जिसवेफ सहारे हम अधिकांश जानकारी प्राप्त करते हैं। यह एक व्यवस्था है जो काप़फी सीमा तक हमारे आस-पास की वास्तविकताओं और घटनाओं को हमारे मस्तिष्क में व्यवस्थित करती है। यह कई तरीकों से हमारी पहचान का एक चिु है और अंततः यह समाज में सत्ता-शक्ति से बहुत नशदीक से जुड़ी हुई है। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि हम वेफवल दूसरों से बात करने वेफ लिए ही नहीं, बल्कि अपने आपसे भी बात करने वेफ लिए भाषा का इस्तेमाल करते हैं। यह वास्तव में भाषा का महत्वपूर्ण कार्य है। हम अपने विचारों को वैफसे स्पष्ट कर सकते हैं जब तक कि हम पहले अपने आप से बात करना न सीखें।
विभिन्न विषय-क्षेत्रों, जैसे-इतिहास, भौतिक विज्ञान अथवा गणित को समझने वेफ लिए हमें भाषा की आवश्यकता होती है। चाहे हम प्रवृफति को देखें या समाज को हम काप़फी हद तक उन्हें अपनी भाषा की संरचना वेफ माध्यम से ही देखते हैं। यह हमारी भाषा है जो हमें यह बताती है कि हम ‘बप़र्फ’ देखते हैं या ‘आइस’ या पिफर आइस और ‘स्नो’ दोनों देखते हैं अथवा एक ही वस्तु वेफ लिए 20 से भी अधिक शब्द- जैसा कि एस्कीमो देखते हैं। अपनी भाषा वेफ मुद्दे को लगातार आधार बनाकर कोई भी समुदाय किसी भी समय एक अलग राज्य की माँग कर सकता है। भारत में कई बार संविधान की आठवीं अनुसूची में अपनी भाषाओं को शामिल कराने वेफ लिए गंभीर प्रयास किए गए हैं। जहाँ तक भाषा और सत्ता/वर्चस्व वेफ संबंध का प्रश्न है- हम सभी जानते हैं कि जब हम किसी खास तरह वेफ उच्चारण अथवा लेखन-व्यवस्था को सही, शु( और मानक वेफ रूप में देखते हैं तो दरअसल हम यह कहना चाहते हैं कि समाज में वर्चस्वशाली समूह का अंग बनने वेफ लिए आपको इसी को अपनाना होगा और व्यवहार में लाना होगा।
अधिकांश बच्चे स्कूल आने से पहले वेफवल एक भाषा नहीं, बल्कि अक्सर अनेक भाषाएँ सीख लेते हैं। स्कूल आने से पहले बच्चा लगभग पाँच हशार अथवा उससे भी अधिक शब्दों को जानता है। अतः बहुभाषिकता हमारी पहचान अथवा अस्मिता की निर्धारक है। यहाँ तक कि दूर-दराज वेफ गाँवों का तथाकथित एक ‘एकल भाषी’ भी अनेक संप्रेषणात्मक स्थितियों में सही तरीवेफ की भाषा इस्तेमाल करने की क्षमता रखता है। अनेक अध्ययनों से पता चला है कि बहुभाषिकता का संज्ञानात्मक विकास, सामाजिक सहनशीलता, विवेंफद्रित चिंतन एवं शैक्षिक उपलब्धि से सकारात्मक संबंध होता है। भाषावैज्ञानिक दृष्टि से, सभी भाषाएँ चाहे वे बोली, आदिवासी या खिचड़ी भाषाएँ हों, सब समान रूप क्वूदसवंकमक थ्तवउरू ीजजचरूध्ध्बइेमचवतजंसण्बवउ से वैज्ञानिक होती हैं। भाषाएँ एक-दूसरे वेफ सान्निध्य में पफलती-पफूलती हैं साथ ही अपनी विशेष पहचान भी बनाकर रखती हैं। बहुभाषिक कक्षा में यह बिलवुफल अनिवार्य होना चाहिए कि हर बच्चे की भाषा को सम्मान दिया जाए और बच्चों की भाषायी विभिन्नता को शिक्षण-विधियों का हिस्सा मान कर भाषा सिखाई जाए।
1.1 भाषा-क्षमता
सभी बच्चे तीन साल की उम्र से पहले ही न वेफवल अपनी भाषा की बुनियादी संरचनाएँ और उपसंरचनाएँ सीख जाते हैं, बल्कि वे यह भी सीख जाते हैं कि विभिन्न परिस्थितियों में इनका किस प्रकार उचित प्रयोग करना है। ;उदाहरण वेफ लिए वे वेफवल भाषिक दक्षता नहीं, बल्कि संप्रेषण की दक्षता भी सीखते हैंद्ध तीन साल वेफ बच्चे वेफ संज्ञानात्मक क्षेत्रा में आने वाले किसी भी विषय पर उसवेफ साथ सार्थक बातचीत की जा सकती है। अतः यह स्वाभाविक है कि समृ( और संवेदनपरक अवसरों वाले बच्चों वेफ अलावा सामान्य बच्चे जन्मजात/नैसर्गिक भाषा-क्षमता वेफ साथ पैदा होते हैं- जैसे कि चाॅम्स्की ने तर्क दिए हैं। यह सच है कि विभिन्न भाषाओं में विभिन्न वस्तुओं वेफ लिए विभिन्न शब्द होते हैं और विभिन्न तरह वेफ पदबंध और अभिव्यक्तियाँ आदि होती हैं, पिफर भी हम जानते हैं कि हर भाषा में संज्ञा, क्रिया और विशेषण जैसी श्रेणियाँ होती हंै अथवा कर्ता$क्रिया$कर्म ;अंग्रेशी की तरहद्ध या कर्ता$कर्म$क्रिया ;हिंदी की तरहद्ध का शब्द क्रम होता है। इसवेफ अतिरिक्त उनवेफ अपने कई नियम होते हैं जो सभी भाषाओं में अपने होते हैं। ;1.2 देखेंद्ध भाषा क्षमता को जन्मजात/नैसर्गिक मानने पर हासिल होने वाले शिक्षण प(ति संबंधी दो निष्कर्ष अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। बच्चों को समुचित अवसर प्रदान करना जिससे बच्चे सहजता वेफ साथ नई भाषा को सीख सवेंफ। दूसरा, पढ़ाते समय व्याकरण की अपेक्षा विषयवस्तु पर अधिक ध्यान देना।
1.2 नियमब( व्यवस्था वेफ रूप में भाषा
वैज्ञानिक तरीवेफ से भाषा की संरचना का अध्ययन करने वाले भाषावैज्ञानिकों वेफ लिए किसी भी भाषा का व्याकरण अनेक उपव्यवस्थाओं से बनी एक बहुत अमूर्त व्यवस्था है। ध्वनि वेफ स्तर पर संसार की भाषाएँ अपनी अनुतान संरचनाओं और सुर रेखाचित्रा वेफ रूप में लय और संगीत वेफ साथ निकटता वेफ साथ जुड़ी हुई हैं। उदाहरण वेफ िए किसी भी भारतीय भाषा में अथवा यहाँ तक कि अंग्रेशी में भी शब्द वेफ शुरू में तीन व्यंजन ध्वनियाँ एक साथ नहीं आतीं और जहाँ भी इन तीन ध्वनियों वेफ आने वेफ विकल्प हैं- वे बहुत सीमित हैं। पहला व्यंजन ‘स्’ ;ेद्ध दूसरा व्यंजन वेफवल ‘प्’ ;चद्ध, ‘त्’ ;जद्ध अथवा ‘क्’ ;ाद्ध तथा तीसरा व्यंजन वेफवल ‘य्’ ;लद्ध, ‘र्’ ;तद्ध ‘ल्’ ;सद्ध अथवा ‘व्’ ;ूद्ध ही हो सकता है जैसा कि हिंदी वेफ ‘स्त्राी’ शब्द में । अंग्रेजी में ष्ेचतपदहश्ए ष्ेजतममजश्ए ष्ेुनंेीश्ए ष्ेबतमूश् आदि भी इसी प्रकार वेफ उदाहरण हैं। भाषा शब्द, वाक्य और प्रोक्ति ;कपेबवनतेमद्ध वेफ स्तर पर नियमों से बंधी हुई है। इनमें से वुफछ नियम हमारी जन्मजात भाषा-क्षमता में पहले से ही खूब होते हैं लेकिन अधिकांश नियम सामाजिक-ऐतिहासिक परिवेश में संपे्रषण वेफ माध्यम से बनते हैं। उनमें सामाजिक व क्षेत्राीय विविधता देखने को मिलती है। इस तरह की भाषिक विविधता कक्षा में हमेशा उपस्थित रहती है और एक शिक्षक को उसकी जानकारी होनी चाहिए। साथ ही जहाँ तक संभव हो उसका सकारात्मक प्रयोग करना चाहिए।
1.3 बोलना और लिखना
बोलने और लिखने में जो बुनियादी अंतर है वह यह है कि लिखित भाषा
सचेत रूप से नियंत्रित रहती है तथा समय में स्थिर हो जाती है। हम जब चाहें तब उस पर
वापस आ सकते हैं। मौखिक भाषा अपनी प्रवृफति में क्षणिक और लिखित भाषा की तुलना में
बहुत जल्दी बदलने वाली होती है। इसलिए मौखिक और लिखित भाषा वेफ बीच की असंगति को
लेकर किसी को आश्चर्यचकित होने की आवश्यकता नहीं है। वाव्फ और लिपि वेफ बीच कोई
दैविक संबंध नहीं है। मौखिक अंग्रेशी और रोमन लिपि वेफ बीच अथवा मौखिक संस्वृफत अथवा
हिंदी भाषा तथा देवनागरी लिपि वेफ बीच कोई परमपावन संबंध नहीं है। वास्तव में संसार
की सभी भाषाएँ वुफछ मामूली बदलाव/संशोधन/परिवर्तन वेफ साथ एक ही लिपि में लिखी जा
सकती हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह
माध्यमिक एक भाषा को संसार की सभी लिपियों में लिखा जा सकता है। वाव्फ एवं लिपि वेफ
बीच इस संबंध वेफ प्रति जागरूकता वेफ कई महत्वपूर्ण शैक्षिक निहितार्थ हैं। जो
शिक्षक इस वस्तुस्थिति अथवा तथ्य से परिचित हैं वे अकसर त्राुटियों वेफ प्रति अपने
दृष्टिकोण में बदलाव लाते हैं तथा नवाचारी शिक्षण-विधियों का विकास करना प्रारंभ
करते हैं।
1.4 भाषा, साहित्य और सौंदर्यबोध
भाषा वेफ अनेक पक्ष हैं जिनवेफ बारे में भाषा शिक्षा वेफ योजनाकार गंभीरता से विचार नहीं करते। संसार को उद्घाटित करने की विशेषता वेफ अलावा भाषा वेफ कई प्रकार्यात्मक तत्व हैं। कविता, गद्य और नाटक न वेफवल हमारी साहित्यिक संवेदनशीलता को परिष्वृफत करते हैं बल्कि हमारे सौंदर्यबोध को भी समृ( बनाते हैं, विशेषरूप से पठन-अवबोधन एवं लिखित वेफ उच्चारण को। साहित्य में चुटवुफले, व्यंग्य, काल्पनिकता, कहानी, पैरोडी, दृष्टांत/नीति कथा भी शामिल हैं जो हमारी दिन-प्रतिदिन की बातचीत में शामिल होते हैं और उनका विस्तार करते हैं।
टैगोर वेफ शांतिनिवेफतन में, यह एक सामान्य अभ्यास होता था कि विद्यार्थी टैगोर वेफ साथ नाटक पढ़ते थे, बांग्ला में उसका अनुवाद करते थे, मंचन करने वेफ लिए उसे तैयार करते थे और अपनी पूरी आभा वेफ साथ समुदाय वेफ सदस्यों वेफ सामने नाटक प्रस्तुत करते थे। जैसा कि माक्र्स ने संवेफत किया है- भाषा-शिक्षा की नीति भाषा वेफ प्रकार्यात्मक, कथात्मक, तत्वमीमांसापरक तत्वों की उपेक्षा नहीं कर सकती और न ही उसे वेफवल सांस्कृतिक लाभों को प्राप्त करने वेफ लिए उपयोगी उपकरण वेफ रूप में देख सकती है। मनुष्य न वेफवल सौंदर्य की सराहना करते हैं बल्कि अनेक बार सौंदर्यबोधी आयामों को नियंत्रित करने वाले नियमों को व्यवस्थित रूप से क्रमब( भी करते हैं। वह भाषा वेफ सौंदर्यपरक पक्ष की पर्याप्त सराहना, शु(ता और सही वेफ प्रति लगाव की अपेक्षा भाषिक गुणवत्ता और सृजनात्मकता को आवश्यक रूप से प्राथमिकता देती है। इस तरह की प्रक्रियाएँ एकालाप/आत्मसंवाद एवं आक्रामकता की अपेक्षा संवाद एवं समझौते को बढ़ावा देती हैं। आशा है कि अल्पसंख्यक और लुप्त प्रायः भाषा वेफ प्रति इससे उस सम्मान में भी वृ(ि होगी जिसकी वे हकदार हैं। कोई भी समुदाय यह नहीं चाहता कि उसकी ‘आवाज’ को हमेशा वेफ लिए खामोश कर दिया जाए।
1.5 भाषा एवं समाज
हालांकि यह ठीक है कि बच्चे जन्मजात भाषा-क्षमता वेफ साथ पैदा होते हैं परंतु प्रत्येक भाषा विशेष प्रकार वेफ सामाजिक-सांस्वृफतिक और राजनैतिक संदर्भ में अर्जित की जाती है। प्रत्येक बच्चा यह सीखता है कि क्या कहना है, किसे कहना है, कहाँ कहना है। जैसा कि लेबाॅव ने बताया है कि भाषाएँ स्वाभाविक रूप से परिवर्तनशील होती हैं और विभिन्न आयुवर्ग वेफ द्वारा विभिन्न संदर्भों में विभिन्न तरीकों से उसका इस्तेमाल किया जाता है। अतः मानवीय भाषिक व्यवहार में परिवर्तनशीलता या विविधता यार्दृाच्छक रूप से नहीं होती ल्कि वह भाषा, संप्रेषण, विचार और ज्ञान की व्यवस्थाओं में संबंध जोड़ती है। अरोइन ने संवेफत दिया है कि समाज वेफ बाहर भाषा का न तो अस्तित्व है और न ही उसका विकास होता है। हमारी सांस्वृफतिक विरासत और सामाजिक विकास की आवश्यकताओं वेफ कारण ही भाषा का विकास होता है। परंतु हमें इसकी विपरीत स्थिति को भी अनदेखा नहीं करना चाहिए। चूँकि भाषा संप्रेषण का बहुत महत्वपूर्ण, सटीक और सार्वभौमिक साधन है। अतः मानव समाज भाषा वेफ बिना विचारों का गठन, अभिव्यक्ति का संचय और प्रसारण नहीं कर सकता। यह जानना भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि भाषाएँ शारीरिक और मानसिक रूप से समय एवं स्थान में लगभग बंधी हुई, वस्तुओं का ही विवेक नहीं करतीं। वास्तव में वे लगातार बदलती रहती हैं ;वे व्यवहार की प्रवाहपूर्ण व्यवस्था है, जिसे मनुष्य ग्रहण करता है और स्वयं को तथा अपने आस-पास वेफ संसार को स्पष्ट करने वेफ लिए उसमें परिवर्तन करता है। प्रायः भाषा को एक वस्तु वेफ रूप में देखा जाता है और व्यक्ति उसवेफ बारे में एक रूढि़ब( दृष्टिकोण अपना लेते हैं। हमें भाषा वेफ इन दोनों पक्षों वेफ प्रति जागरूक रहने की आवश्यकता है।
1.6 भाषा और अस्मिता
कोई भी व्यक्ति समाज वेफ जिस समूह वेफ साथ अपनी पहचान बनाना चाहता है, वह उसी समूह वेफ अनुरूप व्यवहार करता है। इस प्रक्रिया में उसकी ऐसी संप्रेषण क्षमता विकसित होती है जिसका प्रयोग वह तरह-तरह वेफ औपचारिक संदर्भों में करता है। कई बार इन अस्मिताओं का आपस में संघर्ष भी होता है। अल्पसंख्यकों वेफ संदर्भ में अस्मिता विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। राष्ट्रीय और सार्वभौमिक शांति व सौहार्द्र की दृष्टि से यह बहुत जरूरी है कि हम अल्पसंख्यक भाषाओं व संस्कृतियों वेफ प्रति संवेदनशील हों।
यदि भाषा वेफ माध्यम से वुफछ मौजूदा अस्मिताओं की पहचान स्पष्ट हो पाती है तो हम यह कह सकते हैं कि भाषाएँ अस्मिता का प्रतीक और स्मृतियों व प्रतीकों का भंडार तथा उन्हें बनाए रखने का साधन मात्रा नहीं है। वे ऐसा उद्गम स्रोत हैं जहाँ से निकलकर हम अथाह संभावनाओं की तलाश कर सकते हैं।
1.7 भाषा एवं सत्ता
इस तथ्य वेफ बावजूद कि सभी भाषाएँ अमूर्त व्यवस्थाओं या उप
व्यवस्थाओं वेफ रूप में समान हैं- इतिहास, अर्थशास्त्रा, समाजशास्त्रा जिस जटिल
तरीवेफ से भाषा वेफ साथ अंतःक्रिया करते हैं- उससे वुफछ भाषाएँ अन्य की तुलना में
अधिक सम्मानजनक बन जाती हैं तथा सामाजिक- राजनैतिक शक्तियों वेफ साथ जुड़ जाती हैं।
समाज का एक विशिष्ट वर्ग प्रायः जिस भाषा का प्रयोग करता है वही भाषा समाज में
वर्चस्व प्राप्त कर लेती है और मानक भाषा बन जाती है। सभी व्याकरण, शब्दकोश तथा
विभिन्न प्रकार की संदर्भ-सामग्री इस ‘मानक भाषा’ को ही स्वभावतः संबोधित करेगी।
भाषाविज्ञान की दृष्टि से मानक भाषा, शु( भाषा, बोली, प्रकार आदि में कोई अंतर नहीं
है। एक ऐसी बोली को भाषा वेफ रूप में व्याख्यायित किया जाता है जिसकी अपनी वुफछ
विशेषताएँ
हैं। वास्तव में सामाजिक, राजनैतिक एवं अर्थशास्त्राीय संदर्भों वेफ आधार पर व्यक्ति
यह निश्चित करते हैं कि कौन-सी भाषाएँ शिक्षा, प्रशासन, न्यायिक मामलों, संचार आदि
में प्रयुक्त की जाएँगी। सै(ांतिक तौर पर भाषा में वुफछ भी किसी भी तरीवेफ से किया
जा सकता है। चाहे वह मानविकी, समाज विज्ञान और विज्ञान वेफ विषयों में उच्च स्तरीय
शोध क्यों न हो। अतः यह स्वभाविक है कि सुविधाहीन और वंचित वर्ग की भाषा को ऐसी
अभिव्यक्ति कभी भी नहीं मिल पाएगी यदि हम उसे किसी प्रकार का ढाँचागत आधार प्रदान न
करें जिससे विभिन्न संदर्भों में उसका इस्तेमाल हो सवेंफ।
1.8 भाषा और जैंडर
जैंडर का सवाल संसार की आधी नहीं समूची मानवीय आबादी का सवाल है। एक समय वेफ भीतर भाषा की संरचना में बड़ी संख्या में ऐसे तत्व हैं जो जैंडर स्टीरियोटाइप ;रुढि़ब(ताद्ध की तरह इस्तेमाल हो रहे हैं। वेफवल बड़े-बड़े विद्वान ही नहीं बल्कि वुफछ प्रसि( भाषावैज्ञानिकों ने भी ‘औरतों की बोली’ को ‘महत्वहीन’ और ‘सजावट वस्तु’ वेफ अतिरिक्त और वुफछ नहीं माना है। परंतु शाब्दिक और वाक्यपरक अभिव्यक्तियों वेफ महत्वपूर्ण हिस्से लैंगिक पूर्वाग्रह को दर्शाते हैं। स्त्राी-पुरुष की बातचीत वेफ विस्तृत विश्लेषण से भी यह पता चला कि पुरुष अपने विचार मनवाने वेफ लिए विभिन्न संप्रेषणात्मक युक्तियों का किस प्रकार इस्तेमाल करता है।
‘पुरुषोचित’ और ‘स्त्रिायोचित’ की पूर्वनिर्धारित संकल्पनाएँ व्यवहार में लगातार पुनः परिभाषित होती रहती हैं और शायद कई बार अनजाने ही हमारी पाठ्यपुस्तकों वेफ माध्यम से प्रसारित होती रहती हैं। वास्तव में दिनों-दिन स्पष्ट होती जा रही है। इस तरह वेफ सोच वेफ निर्माण में भाषा और अन्य दृश्य-सामग्री वेंफद्रीय भूमिका निभाती है। हमें भाषा वेफ इस पक्ष पर तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता है। पाठ्यपुस्तक वेफ लेखकों एवं शिक्षकों को समझना जरूरी है कि सामान्यतः हमारे समाज और संस्कृति द्वारा निर्मित वुफछ निष्क्रिय और अलग तरह वेफ काम जो महिलाओं वेफ साथ जोड़े गए हैं इन्हें जल्द से जल्द खत्म किया जाना बहुत जरूरी है। स्त्रिायों की आवाश को अपनी दमक, ऐश्वर्य, विविधता वेफ साथ हमारी पाठ्यपुस्तकों एवं शिक्षण प(तियों में महत्वपूर्ण स्थान देने की आवश्यकता है। क्वूदसवंकमक थ्